राजा विक्रमादित्य पीपल के पेड़ के पास लौट आए, जहाँ बेताल एक टेढ़ी शाखा से उल्टा लटका हुआ था। बिना एक शब्द कहे, उन्होंने बेताल को अपने कंधों पर उठाया और साधु से किए अपने वादे को पूरा करने के लिए श्मशान की ओर चल पड़े।
बेताल, राजा के असीम धैर्य और चतुर उत्तरों से प्रसन्न होकर, अंततः बोला, “विक्रम, बस बहुत हुआ मौन—मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ। इस बार कोई चाल नहीं। लेकिन चूंकि श्मशान अभी भी दूर है, इसलिए मुझे एक आखिरी कहानी सुनाने दो।” बेताल के बार बार भाग जाने से थके होने के बावजूद, विक्रमादित्य मुस्कुराए, बेताल की अप्रत्याशित ईमानदारी से उनका संकल्प नरम पड़ गया।

बेताल ने अपनी अंतिम कहानी शुरू की:
प्राचीन नगर कन्याकुब्जा – जिसे आज कन्नौज कहते हैं – में वर्धन वंश के उदार राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में दो भाई रहते थे, करण और अर्जुन। यद्यपि वे छोटे-मोटे व्यापारी मात्र थे, पर वे अपना व्यवसाय साथ-साथ चलाते थे, जहाँ केवल व्यापार ही नहीं बल्कि अटूट भ्रातृप्रेम भी उन्हें बांधे हुए था।
एक दिन, दोनों भाई अपना माल बेचने दूर देश की यात्रा पर निकले। भाग्य ने उन पर कृपा की: उनका व्यापार फल-फूल गया और वे भारी मुनाफे के साथ घर लौटे। किंतु ज्योंही उन्होंने वापसी का मार्ग पकड़ा, भाग्य ने उनके लिए कुछ और ही योजना बना रखी थी…

भाई जब घने जंगल से गुज़र रहे थे, तभी एक तीखी चीख़ ने चुप्पी को चीर दिया। करण और अर्जुन ने एक-दूसरे की ओर देखा—और पत्तियों की सरसराहट के बीच सावधान कदमों से उस आवाज़ की ओर बढ़े। वहाँ, एक घुमावदार पेड़ की शाखाओं के नीचे, एक अद्भुत सुंदरता की महिला बैठी थी, उसके गाल आँसुओं से भीगे हुए थे।
“किसने तुम्हारा अहित किया है, युवती?” अर्जुन ने उसके पास घुटने टेकते हुए पूछा।
सिसकियों के बीच, उसने अपनी कहानी सुनाई: “कुछ दिन पहले, डाकुओं ने मेरे पति और मुझ पर हमला किया… उन्होंने सब कुछ लूट लिया—मेरे गहने, हमारे सिक्के—फिर मेरी आँखों के सामने उन्होंने उन्हें मार डाला। अब मैं अकेली हूँ, कोई नाता नहीं, कोई घर नहीं… कोई आशा नहीं।” उसकी आवाज़ काँप रही थी जब उसने अपनी फटी चुनरी को कसकर पकड़ लिया।

वह महिला बेतहाशा रोई, उसका दुख भाइयों के दिलों को चीर गया। उसकी व्यथा से द्रवित होकर, करण और अर्जुन जान गए कि उन्हें कुछ करना होगा। फुसफुसाते पेड़ों के नीचे एक शांत चर्चा के बाद, वे एक समाधान पर पहुँचे: उनमें से एक उससे शादी करेगा, उसे सुरक्षा और एक नया जीवन देगा।
जब उन्होंने यह प्रस्ताव महिला के सामने रखा, तो वह पहले हिचकिचाई—लेकिन उनकी आँखों में सच्ची चिंता देखकर, उसने आखिरकार सहमति में सिर हिलाया। उनकी दयालुता ने उसका विश्वास जीत लिया था।
अब एक नाज़ुक सवाल सामने था: कौन सा भाई उससे विवाह करे?
निष्पक्ष रूप से निर्णय लेने के लिए, उन्होंने छोटे कागज़ के टुकड़ों पर अपने नाम लिखे, उन्हें ध्यान से मोड़ा, और उन्हें महिला के सामने रख दिया। तीनों सहमत थे—जिसका भी नाम वह निकालेगी, वह उसका पति बनेगा। कांपते हाथों से, उसने एक चिट उठाई और उसे खोला।
“करण,” उसने मुखर स्वर में पढ़ा।

और इस तरह, करण ने उस महिला से विवाह कर लिया, और तीनों एक साथ अपने गाँव लौट आए, जहाँ उन्होंने जीवन का एक नया अध्याय शुरू किया।
समय बीतता गया, और उनका छोटा-सा व्यवसाय अप्रत्याशित रूप से फलने-फूलने लगा। भाइयों की मेहनत ने उनकी छोटी दुकान को एक संपन्न व्यापार में बदल दिया, और अब उनका नाम पूरे क्षेत्र के बाजारों में सम्मान के साथ से लिया जाता था। चाहे मुश्किल दिन हो या खुशहाली के, वे हमेशा कंधे से कंधा मिलाकर चले।
फिर भी, जैसे-जैसे उनका व्यापार फला-फूला, वैसे-वैसे उनके व्यक्तिगत सपने भी। बड़े भाई की नज़र दूर के बाजारों और नए उद्यमों की ओर मुड़ी, जबकि छोटे भाई को अपने मूल शिल्प को परिष्कृत करने में गहरी संतुष्टि मिली। उनके बीच की अनकही समझ हर गुजरते महीने के साथ और स्पष्ट होती गई।
जब समय आया, तो उनकी विदाई में एक दृढ़ हाथ मिलाने के अलावा कोई औपचारिकता नहीं थी – वही इशारा जिसने अनगिनत सौदों की पुष्टि की थी, अब उनके सौम्य अलगाव को चिह्नित कर रहा था। उनके हाथ सामान्य से थोड़ा अधिक देर तक टिके रहे, कड़ी हथेलियाँ वर्षों के साझा श्रम को याद कर रही थीं। विभाजन निष्पक्ष था, खाते बिना किसी विवाद के निपटाए गए।

जब वे अलग-अलग राहों पर चल पड़े, तो उस अंतिम हाथमिलाप का भारीपन वह कह गया जो शब्द नहीं कह पाए—अतीत के लिए कृतज्ञता, और एक मौन आशा कि अब अलग-अलग राहों पर चलते हुए, दोनों भाई अपने-अपने सपनों को कैसे आकार देंगे। चारों ओर बाज़ार की हलचल यूँ ही जारी रही, उनकी ज़िंदगी के इस शांत मोड़ से अछूती।
समय नदी के बहाव की तरह बीता। करण की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया—इस नन्हीं जान ने उनके घर में खुशियों की बाढ़ ला दी।

कपटी किस्मत ने जल्द ही उनके द्वार पर काली छाया फैला दी। बेटा ठीक से बोल भी नहीं पाया था कि करण एक भयानक बुखार की चपेट में आ गया, और कुछ ही दिनों में वह इस दुनिया से चल बसा।
उसकी विधवा शोक के भारी बोझ तले टूट गई—उसके विलाप की आवाज़ें पूरे घर में गूंजने लगीं। और अर्जुन… वह खुद को एक खोखली छाया-सा पाने लगा। अब वह सिर्फ़ एक व्यापारिक साझेदार नहीं, बल्कि अपनी आत्मा का आधा हिस्सा खो चुका एक इंसान था।
शोक की अवधि समाप्त भी नहीं हुई थी कि करण की विधवा अर्जुन के द्वार पर खड़ी थी, उसका नन्हा पुत्र उसकी कमर से लिपटा हुआ था। “भाई अर्जुन,” उसने दृढ़ता से कहा, “मैं आपकी संपत्ति का आधा हिस्सा मांगती हूँ – लालच के लिए नहीं, बल्कि इस बच्चे के लिए जो आपके भाई का खून वहन करता है।” उसने बच्चे को और ऊपर उठाया। “यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, इससे पहले कि आपकी होने वाली पत्नी हमारे बीच आ जाए। आधा हिस्सा अभी दें, नहीं तो बाद में कुछ भी नहीं मिलेगा जब नई निष्ठाएं आपके दिल को बांट देंगी।”

अर्जुन का चेहरा आश्चर्य से भर गया। “भाभी, यह तो बिल्कुल बेमतलब की बात है! हमारे व्यापार का बँटवारा तो सालों पहले ही पूरा हो चुका है। अब मेरी संपत्ति पर तुम्हारा क्या अधिकार?”
पर वह अर्जुन के घर के बाहर डटी रही। जब तर्क-वितर्क से काम न चला, तो वह राजा हर्षवर्धन के दरबार की ओर चल पड़ी – अपने हाथ में बच्चे की नन्हीं उँगलियाँ थामे हुए।

विवेकशील राजा ने उन्हें गंभीरता से देखा – विधवा का दृढ़ संकल्प, बच्चे की मासूम आँखें, अर्जुन के व्याकुल विरोध। दोनों पक्ष सुनने के बाद, हर्षवर्धन ने अपनी मूंछों पर विचारपूर्वक हाथ फेरा। “न्यायशास्त्र में सम्पत्ति विभाजन का विधान है,” उन्होंने मनन किया, “पर धर्म गहरी जिम्मेदारियों को जानता है…” (“धर्मार्थं व्यवस्था जानाति, परं कर्तव्यस्य गम्भीरतरं तत्त्वमस्ति…”)

बेताल ने अपनी पहेली प्रस्तुत की: “तो मुझे बताओ, विक्रम – क्या बुद्धिमान और न्यायप्रिय राजा हर्षवर्धन को विधवा को उसके पुत्र के भविष्य के लिए आधी संपत्ति प्रदान करनी चाहिए, या भाइयों के पिछले समझौते को बरकरार रखना चाहिए?”
प्रिय पाठकों, इस मामले में बुद्धिमान राजा हर्षवर्धन ने क्या निर्णय दिया, आपके विचार में? तर्कों पर विचार करने के लिए एक क्षण लें और विक्रमादित्य की प्रतिक्रिया पढ़ने से पहले अपनी अनुमान लगाएँ।

विक्रमादित्य की उँगलियाँ माला पर ठहर गईं। न्याय एक रास्ता दिखा रहा था… पर करुणा दूसरा फुसफुसा रही थी।
बेताल की आँखें चमक उठीं। “अब—बुद्धिमान राजा होने के नाते—आप कैसे निर्णय करेंगे?”
विक्रमादित्य कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले, “कानून स्पष्ट है, बेताल,” उन्होंने कहा, “लेकिन धर्म और भी स्पष्ट है। जब वह स्त्री सालों पहले दोनों भाइयों के बीच खड़ी थी, तो उसका भाग्य—और उसके अधिकार—समान रूप से उनके जीवन में बुने गए थे। उसने करण को चुना, हाँ… लेकिन अर्जुन की उसकी देखभाल की साझा जिम्मेदारी उनके व्यापारिक बँटवारे के साथ खत्म नहीं हो गई।”
विक्रमादित्य आगे झुके और फिर बोले, “वह लड़का करण की विरासत है। क्या हम कानूनी छोटी-मोटी बातों के चलते उसे दूसरी बार अनाथ कर दें? भाईचारे के ऋण से – अगर लेखा-जोखा से नहीं – तो आधी संपत्ति उसी की है।”
बेताल ने प्रशंसा में ताली बजाई और कहा, “बिल्कुल सही! हर्षवर्धन ने भी ठीक यही निर्णय दिया था: ‘पारिवारिक बंधन लिखित समझौतों से बढ़कर होते हैं। बच्चे को उसके पिता का हिस्सा उसकी माँ की बहादुरी के माध्यम से मिलना चाहिए।”
विक्रमादित्य ने संदेह की एक झलक महसूस की—क्या बेताल फिर से भाग जाएगा? लेकिन बेताल ने उसकी बेचैनी को भांपते हुए उसे आश्वस्त किया: “विक्रम, मेरा वादा अटल है। मैं अब तुम्हें नहीं छोड़ूंगा।”
उस लंबी रात में पहली बार, विक्रम का शरीर और मन राहत महसूस कर रहे थे। बेताल की पहेलियों का उत्तर देने के बाद वह बीस से अधिक बार उस पीपल के पेड़ की ओर दौड़ा था; बीस से अधिक बार उसने बेताल को फिर से उठाया था। अब, जब वे पास के श्मशान की ओर दुर्लभ सामंजस्य में चल रहे थे, तो ऐसा लगा जैसे चाँद भी उनके साथ साँस ले रहा हो।
विक्रम के निर्णय का विश्लेषण बेहतर ढंग से समझने के लिए, इस चित्र के नीचे दिए गए पाठ को पढ़ें:

मूल समझौते पर ध्यान दें –
विक्रम सही ढंग से पहचानता है कि विधवा का दावा उस प्रारंभिक संयुक्त व्यापार व्यवस्था से उत्पन्न होता है जब उसने करण से विवाह किया था।
चूंकि भाइयों ने उसके विवाह के समय साझेदारी की थी, इसलिए उसे उनकी सामूहिक संपत्ति में एक वैध हिस्सेदारी थी।
न्याय तकनीकीता से ऊपर –
हालाँकि भाइयों ने बाद में अपने व्यवसाय अलग कर लिए, पर विक्रम समझौते के मूल भाव (विवाह के समय उसके समान हक) को बाद के बँटवारे से ऊपर रखता है।
यह एक धर्म-आधारित निर्णय (नैतिक कर्तव्य) दर्शाता है, न कि केवल लेन-देन संबंधी।
प्राचीन न्यायशास्त्र से सामंजस्य –
कई परंपरागत भारतीय विधि-व्यवस्थाओं में, विशेषकर यदि विधवा के पास अन्य सहारा न हो, तो उसे उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त था।
विक्रम का निर्णय राजा हर्षवर्धन की उस न्यायप्रिय छवि से मेल खाता है, जो कमजोर वर्गों के प्रति संवेदनशील थे।
उनका उत्तर बुद्धिमत्तापूर्ण और दयालु है, जो विक्रम-बेताल परंपरा के अनुरूप है—जहाँ धर्म (नैतिकता) को कानूनी कठोरता से ऊपर रखा जाता है।
हालाँकि, एक आधुनिक कानूनी दृष्टिकोण यह बहस कर सकता है कि क्या विधवा का दावा पूर्णतः अटल था या फिर समायोज्य।
(वैकल्पिक संक्षेप: “प्राचीन न्याय और आधुनिक प्रश्न” – विक्रम का फैसला परंपरागत विधवा-अधिकारों और धर्म के सिद्धांतों पर आधारित है, पर आज का कानून इसमें सापेक्षिकता की गुंजाइश देख सकता है।)
- 14 Best Panchatantra stories in hindi
- 15 Best Children Stories in English from Panchatantra 2.0
- 16 Best Aesop's Fables in Hindi with moral lessons
- 17 Best Aesop's Fables with moral lessons for children
- Arabian Nights
- Baital Pachisi बैताल पचीसी in Hindi
- Bedtime Stories for All
- Vikram and Betal series: Riddle Solving Stories
You can join my WhatsApp Channel by clicking the link here